Lucknow
इंडिया न्यूज, लखनऊ (Uttar Pradesh): इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ बेंच का एक फैसला यूपी में चर्चा का केंद्र बना हुआ है। अदालत ने चकबंदी के एक केस में यह आदेश दिया हैं। कोर्ट के सामने 67 साल पुराने ऑर्डर की 32 साल पुरानी प्रति पेश की गई थी, जिस पर उसने पर शक जाहिर किया। इसकी फरेंसिक जांच के आदेश दिए। जस्टिस जसप्रीत सिंह की एकल पीठ ने ओम पाल की याचिका पर सुनवाई करते हुए यह आदेश दिया। उच्च न्यायालय के आदेश के बाद कॉपी की कागज और स्याही की जांच होगी, कि यह कितनी पुरानी है। यह भी पता लगाया जाएगा कि टाइपराइटर का टाइप फेस क्या था।
डीएम उन्नाव को अदालत ने दिया ये आदेश
अदालत ने जिलाधिकारी, उन्नाव को भी इस संबंध में आदेश दिया। अदालत ने जिलाधिकारी से यह पता लगाने को कहा कि क्या कथित आदेश की कॉपी चकबंदी दफ्तर से जारी की गई है, साल 1987 या उससे पहले उन्नाव के चकबंदी दफ्तर में टाइप राइटर का इस्तेमाल होता था। मामले की अगली सुनवाई 31 जनवरी को तय की गई है।
कथित आदेश की प्रमाणिकता पर संदेह
याचिकाकर्ता ने 22 जुलाई 1955 के उप संचालक चकबंदी उन्नाव के कथित आदेश को कानून के खिलाफ बताते हुए एक याचिका दाखिल की थी। इसके साथ आदेश की प्रति भी लगाई थी। बहस के दौरान राज्य सरकार और ग्राम सभा के वकीलों कथित आदेश की प्रमाणिकता पर संदेह जताया था। जिसके बाद याची की ओर से कथित आदेश की सर्टिफाइड कॉपी अदालत में पेश की गई। अदालत को बताया गया कि साल 1987 में प्रमाणित कॉपी को जारी किया गया था।
सरकार और ग्राम सभा की ओर से प्रमाणित कॉपी पर सवाल उठाते हुए दावा किया गया कि साल 1955 में चकबंदी कार्यवाही के लिए टाइपराइटर का इस्तेमाल नहीं होता था। दूसरी दलील यह दी गई कि चकबंदी रेगुलेशन के तहत 12 साल बाद अनावश्यक रिकॉर्ड नष्ट कर दिया जाता है। इसलिए 1955 के आदेश की प्रमाणित कॉपी 32 साल बाद यानी 1987 में जारी नहीं की जा सकती।