Mulayam Singh Yadav
इंडिया न्यूज, लखनऊ (Uttar Pradesh) । (इंद्रा यादव)
सपा संरक्षक रहे मुलायम सिंह यादव का मंगलवार को उनके पैतृक गांव सैफई में राजकीय सम्मान के साथ अंतिम संस्कार किया गया। इसी के साथ एक राजनीतिक युग का अंत भी हो गया। धरती पुत्र मुलायम सिंह यादव का यूं जाना भारतीय राजनीति में एक बड़ा शून्य है। सियासत ने मुलायम सिंह को नेताजी कहा। अपने सियासी सफर में मुलायम ने बहुत कुछ किया, बहुत कुछ खोया, बहुत कुछ पाया, लेकिन कुछ ख्वाहिशें ऐसी थीं, जिनके मुकम्मल ना होने का दर्द भी नेताजी के साथ चला गया।
पीएम बनने की इच्छा रही अधूरी
कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता… कहीं जमीन तो कहीं आसमां नहीं मिलता… मरहूम निदा फाजली का ये शेर ‘धरतीपुत्र’ मुलायम सिंह पर सटीक है। मुलायम का जीवन एक ऐसे खांटी नेता का रहा है, जो 3 बार मुख्यमंत्री रहने के बाद भी कभी जमीन से नहीं कटे। उन्होंने मुख्यमंत्री और केंद्र में मंत्री रहते हुए भी जमीन से नाता नही तोड़ा। मुलायम सिंह यादव ने अपने 55 साल के राजनीतिक जीवन में हर ऊंचाई को छुआ। लेकिन इसके बावजूद उन्हें एक बात की हमेशा कसक रही कि, वो प्रधानमंत्री नहीं बन पाए।
असल में उनके जीवन में दो बार ऐसे मौके आए, जब वो प्रधानमंत्री की कुर्सी के बेहद करीब पहुंच गए थे। लेकिन ऐन वक्त पर लालू प्रसाद यादव, शरद यादव जैसे नेताओं का साथ नहीं मिला और उनकी ये इच्छा अधूरी रह गई। मुलायम सिंह यादव का प्रधानमंत्री बनने की रेस में नाम पहली बार साल 1996 में आया था। 1996 और 1999 में दो बार दिल्ली की सत्ता में काबिज होते-होते वो दौड़ में पिछड़ गए। उनके अपनों ने ही अरमानों पर पानी फेर दिया और इसकी कसक ताउम्र उन्हें सालती रही।
अखिलेश-शिवपाल की नहीं मिटी दूरी
मुलायम सिंह यादव की दूसरी ख्वाहिश परिवार को साथ लाने की थी। नवंबर 2016 में समाजवादी परिवार में संग्राम छिड़ा वो आखिर तक खत्म ना हो सका। ऐसा नहीं था कि कोशिशें नहीं हुई। बल्कि खुद नेता जी ने पूरी जान लगा दी, लेकिन वो शिवपाल और अखिलेश के बीच की दूरियों को खत्म ना कर पाए। वैसे तो शिवपाल और अखिलेश चाचा-भतीजे हैं। लेकिन ये रिश्ता अब कहने भर को रह गया है। सियासत ने चाचा-भतीजे के बीच की दूरियां काफी हद तक बढ़ा दी हैं।
अखिलेश का सीएम बनना मुलायम की राजनीति से एकदम अलग था। वो नए जमाने की पॉलिटिक्स लेकर आए। जिन्हें लेकर अखिलेश और शिवपाल के बीच खटपट होने लगी। और ये तकरार इतनी बढ़ी कि दोनों के बीच वर्चस्व की जंग छिड़ गई। कभी नेता जी ने अखिलेश से प्रदेश अध्यक्ष पद से इस्तीफा ले लिया तो गुस्साए अखिलेश ने शिवपाल के विभाग छीन लिए। इसी विवाद की वजह से पार्टी की 2017 के चुनाव में बुरी हार हुई। इसके बाद 2019 में सपा बसपा गठबंधन का प्रयोग भी नाकाम रहा। क्योंकि शिवपाल का साथ अखिलेश को हासिल नहीं था। नतीजा ये रहा कि, चाचा-भतीजा एक दूसरे पर आरोप लगाने लगे और आखिरकार अखिलेश ने चाचा को पत्र लिखते हुए कह दिया कि, आप पार्टी से कही भी जाने के लिए स्वतंत्र हैं।
अब नेताजी तो दुनिया को अलविदा कह गए, लेकिन उनके दिल में ये कसक अभी भी जिंदा रहेगी कि, वो अपने परिवार को साथ न ला पाएं…
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