Haldwani
इंडिया न्यूज, हल्द्वानी (Uttarakhand) । हल्द्वानी में 14वां राष्ट्रीय कुमाऊंनी भाषा सम्मेलन शुरू हो गया हैं। तीन दिन का यह सम्मेलन 13 नवंबर तक चलेगा। इस सम्मेलन की सबसे बड़ी खासियत यह है की कार्यक्रम के संचालन से लेकर अन्य सभी कार्यक्रम कुमाउंनी भाषा में ही किये जा रहे हैं। इस कार्यक्रम में कुमाऊनी भाषा से जुड़ी किताबों की प्रदर्शनी भी लगाई गई है।
हल्द्वानी में 3 दिन तक चलने वाले राष्ट्रीय कुमाऊनी भाषा सम्मेलन में कुमाऊनी भाषा की जानी-मानी साहित्यकार, लोक संस्कृति से जुड़े लोग, रंगकर्मी हिस्सा ले रहे हैं। इस सम्मेलन में शिरकत कर रहे लोगों ने और कुमाऊं की लोक संस्कृति को लेकर चिंता जाहिर की और इस बात पर मंथन किया जा रहा है की कुमाऊनी भाषा, उसके साहित्य और कुमाऊंनी संस्कृति को कैसे आगे बढ़ाए जा सकता है।
हिंदी अकादमी पुरस्कार, सारिका पुरस्कार और संजीवनी पुरस्कार से सम्मानित प्रोफेसर दिवा भट्ट बताती हैं की आज देश के अंदर कई ऐसी भाषा हैं जो विलुप्त होने की कगार पर है उनमें से कुमाऊनी भाषा भी एक है लिहाजा बहुत जरूरी हो गया है कुमाऊनी भाषा के सम्मेलन, पुस्तक प्रदर्शनी और लोग संस्कृत के कार्यक्रमों का आयोजन कर कुमाऊनी भाषा और साहित्य को आगे बढ़ाने का काम किया जाए।
सम्मेलन के सचिव डॉक्टर हयात सिंह रावत बताते हैं की यह कुमाऊनी भाषा के विकास का एक अभियान है कि कुमाऊंनी भाषा को भी मान्यता मिली और उसे भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किया जाए। यही नहीं कुमाऊनी भाषा को उत्तराखंड के अंदर कक्षा 1 से लेकर MA तक की कक्षाओं में पढ़ाया जाना अनिवार्य किया जाए। इस सम्मेलन में इस बात पर भी चर्चा की जा रही है कि आज तक कुमाऊंनी भाषा और उसके साहित्य पर किस किस तरह का और क्या-क्या काम हुआ है और आगे हमें कुमाऊंनी भाषा और उसके साहित्य को बचाने और आगे बढ़ाने के लिए किस तरह का काम करना है।
बांसुरी वादक मोहन जोशी ने कहा कि “बेडू पाको बारो मासा ” गीत की धुन उत्तराखंड और उत्तराखंड की संस्कृति की अनूठी पहचान है, इस धुन को उत्तराखंड ही नहीं देश और विदेशों में भी बड़ी पहचान मिली है। बागेश्वर के रहने वाले मोहन जोशी उन्हीं बांसुरी वाद्य कलाकारों में से एक हैं जो बांसुरी पर बेडू पाको बारो मासा की धुन बजाकर दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर देते हैं।
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