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Uttarakhand: टिहरी में अनोखी दिवाली, गेहूं की फसल में सैकड़ों भक्तों ने लगाई दौड़

• LAST UPDATED : November 25, 2022

Uttarakhand

इंडिया न्यूज, टिहरी (Uttarakhand)। पूरे भारत देश में जहां कार्तिक मास की अमावस्या को दिवाली का जश्न मनाया जाता है, वहीं टिहरी गढवाल के थाती बूढाकेदार पट्टी और टिहरी जिले के जौनसार बावर क्षेत्र के लोग सामान्य दिनों की तरह अपने काम-धंधों में लगे रहते हैं। इसके ठीक एक माह बाद मार्गशीर्ष अगहन की अमावस्या को यहां दिवाली मनाई जाती है, जिसका उत्सव तीन से चार दिन तक चलता है।

लोग इसे देवलांग के नाम से जानते हैं
कई क्षेत्रों में इस दिवाली को “देवलांग” नाम से भी जाना जाता है। इन क्षेत्रों में दिवाली का त्योहार एक माह बाद मनाने का कोई ठीक इतिहास तो नहीं मिलता। पर एक प्रचलित कहानी के अनुसार एक समय टिहरी नरेश से किसी व्यक्ति ने वीर माधो सिंह भंडारी की झूठी शिकायत की, जिस पर उन्हें दरबार में तत्काल हाजिर होने का आदेश दिया गया। उस दिन कार्तिक मास की दीपावली थी। रियासत के लोगों ने अपने प्रिय नेता को त्योहार के अवसर पर राजदरबार में बुलाए जाने के कारण दीपावली नहीं मनाई और इसके एक माह बाद भंडारी के लौटने पर अगहन माह में अमावस्या को दिवाली मनाई गई।

शिवपुराण की एक कथा के अनुसार एक समय प्रजापति ब्रह्मा और सृष्टि के पालनहार भगवान विष्णु में श्रेष्ठता को लेकर संघर्ष होने लगा। वे एक-दूसरे के वध के लिए तैयार हो गए। इससे सभी देवी, देवता व्याकुल हो उठे और उन्होंने देवाधिदेव शिवजी से प्रार्थना की। शिवजी उनकी प्रार्थना सुनकर विवाद स्थल पर ज्योतिर्लिंग (महाग्नि स्तम्भ) के रूपमें दोनों के बीच खड़े हो गए।

उस समय आकाशवाणी हुई कि दोनों में से जो इस ज्योतिर्लिंग के आदि और अंत का पता लगा लेगा वही श्रेष्ठ होगा। ब्रह्माजी ऊपर को उड़े और विष्णुजी नीचे की ओर गए। कई वर्षों तक वे दोनों खोज करते रहे लेकिन अंत में जहाँ से निकले थे, वहीं पहुंच गए। तब दोनों देवताओं ने माना कि कोई उनसे भी श्रेष्ठ है और वे उस ज्योतिर्मय स्तंभ को श्रेष्ठ मानने लगे। इन क्षेत्रों में महाभारत में वर्णित पांडवों का विशेष प्रभाव है। कुछ लोगों का कहना है कि कार्तिक मास की अमावस्या के समय भीम कहीं युद्ध में बाहर गए थे। इस कारण वहां दिवाली नहीं मनाई गई। जब वह युद्ध जीतकर आए तब खुशी में ठीक एक माह बाद दिवाली मनाई गई और यही परंपरा बन गई। कारण कुछ भी हो, लेकिन यह दिवाली जिसे इन क्षेत्रों में नई दिवाली भी कहा जाता है। मंदिर समिति के अध्यक्ष भूपेंद्र सिंह नेगी ने बताया कि गुरू कैलापीर गढ़वाल रियासत के राजाओं और 52 गढ़ों के वीर भड़ों के आराध्य देव रहे हैं।

ऐसी है मान्यता
टिहरी जनपद के भिलंगना पखंड स्थित बूढाकेदार गांव में देव गुरु कैलापीर देवता के मेले दिन सुबह ग्रामीण ढोल नगाड़ों के साथ मंदिर परिसर में एकत्र होते हैं। इसके बाद देवता की पूजा अर्चना होती है। इसके बाद ग्रामीण देवता के पश्वा के मंदिर से बाहर आने का इंतजार करते हैं। फिर देवता की झंडी को मंदिर से बाहर निकाला जाता है। पूजारी देवता के पश्वा को लेकर खेतों में जाते हैं। ग्रामीण उनके पीछे जाते हैं। अच्छी फसल व क्षेत्र की खुशहाली के लिए ग्रामीण देवता के पश्वा के साथ खेतों में दौड़ लगाते हैं। अंतिम चक्कर में ग्रामीण कैलापीर के त्रिशूल पर पराली चढाते हैं। इसके बाद महिलाएं आशीर्वाद लेने को वहां पहुंचती है। इस दौरान लोग मंदिर में नारियल साड़ी आदि चढाते हैं। साथ ही देवता के पश्वा को अपनी समस्या बताते हैं। कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में मौजूद रही टिहरी जिला पंचायत अध्यक्ष सोना सजवाण ने 90 जोला कठुड़ के लोगों को गुरू कैलापीर दिवाली की बधाई दी और गुरु कैलापीर का आशीर्वाद लिया और जनपद वासियों के खुशहाली की कामना की।

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