महाभारत में राजा जनमेजय की कथा काफी प्रसिद्ध है, वे पाण्डवों के पौत्र राजा परीक्षित के पुत्र थे
राजा जनमेजय के पिता राजा परीक्षित एक समय शिकार खेलते हुए ऋषि शमीक के आश्रम चले गए थे
वहां ध्यान मग्न शमीक ने उन पर ध्यान नहीं दिया तो गुस्से में परीक्षित उनके गले में मरा सांप डालकर लौट आए
जब उनके पुत्र ऋषि श्रृंगी को इसका पता चला तो उन्होंने परीक्षित को सात दिन में तक्षक नाग के काटने से मृत्यु का श्राप दे दिया
इसके बाद राजा परीक्षित ने सात दिन भागवत सुनते हुए अंतिम दिन तक्षक नाग के काटने से मृत्यु को प्राप्त किया
जब जनमेजय राजा हुए तो मंत्रियों से ये कथा सुनकर उन्होंने तक्षक सहित सभी नागों को भस्म करने का संकल्प लेकर सर्प यज्ञ किया,यज्ञ शुरु होते ही सारे सांप पूंछ से एक दूसरे को लपेटते हुए आग में गिरने लगे
जब वासुकी नाग भी उस यज्ञ से तड़प उठे तो उन्होंने अपनी बहन जरत्कारु से नागों की रक्षा की विनती की, इस पर जरत्कारू ने अपने ज्ञानी पुत्र आस्तिक को इसके लिए प्रेरणा दी
इसके बाद बालक आस्तिक ने यज्ञ स्थल पर जाकर यज्ञ के साथ यजमान, ऋत्विज, सभासद व अग्नि की स्तुति की,इससे सभी उन पर प्रसन्न हो गए
उसी समय यज्ञ की आहुतियों से तक्षक नाग भी इंद्र देव के साथ वहां प्रगट हो गया, पर जैसे ही तक्षक यज्ञ कुंड में गिरने लगा, तभी आस्तिक ने उसे रास्ते में रोक जनमेजय से यज्ञ समाप्ति का वरदान मांग लिया
इस पर पहले तो जन्मेजय ने यज्ञ समाप्ति की जगह आस्तिक को अन्य वस्तु मांगने का प्रलोभन दिया, पर जब वे नहीं माने तो जनमेजय ने ब्राह्मण बालक की इच्छा पूरी करना तय कर यज्ञ समाप्त कर दिया
इस तरह तक्षक व वासुकी सहित सांपों की कई प्रजातियां यज्ञ कुंड में भस्म होने से बच गईं